नई दिल्लीः शैलेश मटियानी को भारत का गोर्की कहा जाता था. वह नई कहानी आन्दोलन के दौर के प्रसिद्ध कहानीकार व गद्यकार थे. 14 अक्तूबर, 1931 को उत्तराखंड के अल्मोड़ा में उनका जन्म हुआ. बचपन गरीबी में बीता, बूचड़खाने में मजदूरी की और प्रौढ़ावस्था में नौजवान बेटे की मौत से जीवन का आखिरी समय विक्षिप्त अवस्था में बिताया. पर लेखन जैसे उनके लिए सब कुछ था. वह कहा करते थे कि 'वह तो कागज पर 'खेती' करते हैं.' शैलेश मटियानी की गिनती देश के सर्वश्रेष्ठ कथाकारों में होती है. आलोचक गिरिराज किशोर ने उनकी कहानियों का मूल्यांकन करते हुए उन्हें प्रेमचंद से आगे का उपन्यासकार बताया था. राजेंद्र यादव ने भी शैलेश मटियानी की कहानियों पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि मटियानी हमारे बीच वह अकेला लेखक है, जिसके पास दस से भी अधिक नायाब और बेहतरीन ही नहीं, कालजयी कहानियां हैं, जबकि अमूमन लेखकों के पास दो या फिर तीन हुआ करती हैं. कोई बहुत प्रतिभाशाली हुआ तो हद से हद पांच.
शैलेश मटियानी ने न सिर्फ हिंदी के आंचलिक साहित्य को नई ऊंचाई दी, बल्कि हिंदी कहानी को कई यादगार चरित्र भी दिए. उन्होंने हिंदी साहित्य को 'चील', 'प्यास और पत्थर', 'अतीत तथा अन्य कहानियां', 'भेड़ें और गड़ेरिये', 'कन्या तथा अन्य कहानियां', 'बर्फ और चट्टानें', 'नाच, जमूरे, नाच', 'मैमूद', 'सावित्री' जैसे श्रेष्ठ कहानी संग्रह दिए तो 'गोपुली गफूरन', 'चंद औरतों का शहर', 'नागवल्लरी', 'बावन नदियों का संगम', 'माया-सरोवर', 'मुठभेड़', 'रामकली', 'हौलदार', 'उत्तरकांड' जैसे उपन्यास तो दिए ही, 'लेखक की हैसियत से', 'बेला हुइ अबेर', 'त्रिज्या', 'किसे पता है राष्ट्रीय शर्म का मतलब?' , 'जनता और साहित्य', 'लेखक और संवेदना', 'मुख्यधारा का सवाल', 'यथा-प्रसंग', 'कभी कभार', 'किसके राम कैसे राम', 'यदाकदा', जैसे विचारात्मक तथा लोक आख्यान से संबंधित उत्कृष्ट कृतियां भी दीं. उन्होंने बाल साहित्य भी लिखा, जिसमें 'बिल्ली के बच्चे', 'मां की वापसी', 'कालीपार की लोक कथाएं', 'हाथी चींटीं की लड़ाई', 'चांदी का रूपैया और रानी गौरेया', 'फूलों की नगरी', 'भरत मिलाप', 'सुबह के सूरज', 'मां तुम आओ' और 'योग संयोग' जैसी कृतियां उल्लेखनीय हैं.