पटना: दैनिक जागरण के सहयोग से आयोजित पटना लिटरेचर फेस्टिवल में फिल्मों और गीतों पर भी कई सत्र हुए। ऐसा ही एक सत्र लघु फिल्मों पर था जिसका शीर्षक था  'गागर में सागर : लघु फिल्मों के बढ़ती लोकप्रियता और इस सत्र के प्रतिभागी थे बिहार संगीत नाटक अकादमी के सचिव और फिल्म समीक्षा के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समीक्षक विनोद अनुपम, सेंसर बोर्ड की सदस्य वाणी त्रिपाठी टिक्कू, फिल्म निर्देशक अविनाश दास और इस सत्र का संचलन किया पंकज दूबे ने।  वाणी त्रिपाठी ने विषय प्रवेश करते हुए कहा  " लघु फिल्मों की वजह से फिल्में लोकतात्रिक हुईं। अब दर्शक बगैर  सिनेमा हॉल गए फिल्जामें देख सकते हैं। अब मोबाइल से एक और 2 मिनट की भी फिल्में बन रही हैं।  संसार अब हथेली में सिमट गया है। फ़िल्म  महोत्सव में लघु फिल्मों को क्यूरेट किया जाता है। एक बहुत ही नया माध्यम भी है और देखना है कि कितना आगे बढ़ पाता है। ये किसी  दलाल का मोहताज़ नहीं है। यही इस माध्यम का अनुपम प्रयास है। छोटी फिल्मों में  पैसा नहीं मिलता। अब एशियाई फिल्मों में भी सबसे अधिक शार्ट फ़िल्म बन रही हैं।  यदि कोई  चीज उद्वेलित करे तो लघु फ़िल्म बनाई जानी चाहिए।"

शार्ट फिल्मों की बढ़ती लोकप्रियता रक अविनाश दास ने कहा कि रचनाकार कंटेंट के हिसाब से लंबाई तय करता है। मुझे अनुराग कश्यप और मनोज वाजपेयी ने लघु फ़िल्म बनाने के लिए कहा । संवेदना का मर्म छूने वाली फ़िल्म बनाने  की काबिलियत  मुझमें नहीं है। शार्ट फिल्मों की दुनिया शार्ट भी है।  डिजिटल मीडिया  लोगों की पहुंच में ज्यादा है। लोग  लघु फिल्में अलग कनविक्शन के साथ बना रहे हैं और बहुत कम समझौते कर रहे हैं।

विनोद अनुपम कहा कि " शार्ट फ़िल्म समीक्षक का मोहताज नहीं बल्कि सीधे जनता से संवाद करती हैं। मोबाइल पर लंबी फ़िल्म नहीं देखा जा सकती। लघु फ़िल्म की लोकप्रियता की मुख्य वजह तकनीक है। बाजार में वो अपने कंटेंट के  कारण लोकप्रिय हो रहा है लेकिन इस विधा पर निर्णय होना बाकी है।   नई फिल्में नई कहानी के साथ  आ रही है। हिंदी फिल्मो का बड़ा संकट कहानी का भी रहा है।