''निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल.' अपनी मातृभाषा के प्रति प्रेम की ऐसी उत्कृष्ट और सर्वस्वीकार्य पंक्तियों के लेखक आधुनिक हिंदी साहित्य के जन्मदाता भारतेन्दु हरिश्चंद्र का जन्म काशी के प्रसिद्ध इतिहासकार सेठ अमीचंद के प्रपौत्र गोपालचंद्र के जेष्ठ पुत्र के रूप में 9 सितंबर 1850 ई को हुआ था. वह बहुत छोटे ही थे, जब मां का निधन हो गया. स्कूली शिक्षा बहुत कम हुई पर स्वाध्याय से इन्होंने हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी, मराठी, गुजराती, मारवाड़ी, बंगला, उर्दू, पंजाबी आदि भारतीय भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया. वह उच्च कोटि के कवि, नाटककार, निबंधकार, संपादक, समाज सुधारक थे. उन्हें हिंदी गद्य का जन्मदाता कहा जाता है, पर तथ्य यह है कि बाल्यकाल से इनकी रूचि काव्य रचना में थी. उनकी काव्यकृतियों में 'भक्तसर्वस्व', 'प्रेममालिका', 'प्रेम माधुरी', 'प्रेम-तरंग', 'उत्तरार्द्ध भक्तमाल',  'प्रेम-प्रलाप', 'होली', 'मधु मुकुल', 'राग-संग्रह', 'वर्षा-विनोद', 'विनय प्रेम पचासा', 'फूलों का गुच्छा- खड़ीबोली काव्य', 'प्रेम फुलवारी', 'कृष्णचरित्र', 'दानलीला', 'तन्मय लीला', 'नये ज़माने की मुकरी', 'सुमनांजलि' और हास्य व्यंग्य 'बन्दर सभा' शामिल है. इनकी समाजसेवा, साहित्य प्रेम, भाषा सेवा से प्रभावित होकर पं रघुनाथ, पं सुधाकर दिवेदी, पं रामेश्वर दत्त व्यास के प्रस्ताव पर काशी के विद्वानों ने सन 1880 ई में  'भारतेन्दु' की पदवी से सुशोभित किया था. इन्होंने हिंदी भाषा के प्रचार के लिए बहुत व्यापक आंदोलन चलाया और सन 1873 ई में 'हरिश्चन्द्र मैगनीज' का संपादन किया, बाद में जिसका नाम 'हरिश्चंद्र चन्द्रिका' हो गया. इसके अलावा उन्होंने 'कविवचन सुधा' और 'बाला बोधिनी' जैसी पत्रिकाओं का संपादन भी किया.

हिंदी में नाटकों का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चंद्र से माना जाता है. यद्यपि नाटक पहले भी लिखे जाते रहे किन्तु नियमित रूप से खड़ीबोली में अनेक नाटक लिखकर भारतेन्दु ने ही हिंदी नाटक की नींव को सुदृढ़ बनाया. इन्होंने 'रत्नावली', 'पाखण्ड-विडंबन', 'धनंजय विजय', 'कर्पूर मंजरी', 'विद्यासुंदर', 'अंधेर-नगरी', 'मुद्रा राक्षस', 'भारत जननी', 'सत्य हरिश्चंद्र', 'दुर्लभ बन्धु', 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति', 'श्री चन्द्रावली', 'विषस्य विश्मौश्धम', 'नील देवी', 'भारत दुर्दशा', 'सती प्रताप', 'प्रेम जोगिनी' जैसे प्रसिद्ध नाटक  लिखे. 'दिल्ली दरबार दर्पण' इनका श्रेष्ठ निबंध माना जाता है. इन्होंने इतिहास, पुराण, धर्म, भाषा, संगीत आदि अनेक विषयों पर लिखा. 'लीलावती', 'परिहास वंचक', 'सुलोचना', 'मदालसा' जैसे निबंध के अलावा   'सरयू पार की यात्रा' और  'लखनऊ की यात्रा' जैसे यात्रा वृतांत के अलावा उन्होंने 'सूरदास', 'जयदेव', और 'महात्मा मोहम्मद' नामक जीवनियां भी लिखीं. उन्होंने 'एक कहानी- कुछ आपबीती, कुछ जगबीती' नाम से आत्मकथा भी लिखी थी. उनके वृहत साहित्यिक योगदान के कारण ही हिंदी में 1857 से 1900 तक के समूचे कालखंड को 'भारतेन्दु युग' के नाम से जाना जाता है.