हिंदी के युवा आलोचक राजीव रंजन गिरि की नयी किताब राजकमल प्रकाशन व रजा फाउंडेशन ने संयुक्त रूप से प्रकाशित किया है । यह पुस्तक हिंदी साहित्य में चले तीन प्रमुख विमर्शों को केंद्र में रखकर लिखी गई है। इस पुस्तक की भूमिका वरिष्ठ कवि  व आलोचक अशोक वाजपेयी ने लिखी है। 

पहला विमर्श

उन्नसवीं शताब्दी में गद्य के लिए तो खड़ी बोली की उपयोगिता स्वीकार ली गयी लेकिन पद्य के लिए ब्रजभाषा को अधिक उपयुक्त समझा जाने लगा था। ये विचार भारतेंद हरिश्चंद्र के कारण उनकी पूरी मंडली के थे।  लेकिन बिहार में मुजफ्फरपुर के अयोध्या प्रसाद खत्री ने इन मान्यताओं को चुनौती थी और ये तर्क रखा के  जब खड़ी बोली में गद्य लिखा जा सकता है तो पद्य क्यों नहीं ?  लेखक का दावा है कि खड़ी बोली में हिंदी-उर्दू दोनों का सम्मिश्रण था । भारतेंदू मंडल के लेखक  अपने उर्दू विरोध के कारण खड़ी बोली को मान्यता प्रदान नहीं करना चाहते थे।  उस परिदृश्य पर राजीव रंजर गिरि ने रोशनी डाली है ‘‘ हिंदी के रचनाकार उर्दू के खिलाफ रचना कर रहे थे तथा उर्दू के रचनाकार हिंदी के खिलाफ। ऐसे माहौल में भारतेंदू मंडल के रचनाकारों को अयोध्या प्रसाद खत्री की सुलहपरक भाषा नीति पसंद नहीं आयी। ’’

उस वक्त अयोध्या प्रसाद खत्री की बात भले नहीं  मानी गयी लेकिन  समय ने उन्हें बहुत हद तक सही साबित किया।

दूसरा विमर्श

अध्याय दो संविधान सभा में   हिंदी भाषा को लेकर दक्षिण के राज्य विशेषकर तामिलनाडु के विरोध से शुरू होता है। हिंदी  को थोपने, ‘ हिंदी साम्राज्यवादलादने का आरोप लगने लगता है। राजीव रंजन गिरि ये सवाल उठाते हैं हिंदी इंपीरियलिज्मकी बात करने वालों ने कभी भी अंग्रेजी इंपीरियलिज्मका सवाल  क्यों नहीं उठाया ? ’’संविधान सभा ने मुंशी -आयंगर’  फार्मूले के तहत हिंदी के लिए राष्ट्भाषा  की जगह संघ की राजभाषा’’ का प्रयोग किया। यहां गिरि की यह टिप्पणी ध्यातव्य है ‘‘ ‘राष्ट्भाषा से राजभाषा’  की यात्रा में न तो हिंदी समर्थकों की बातें मानी गयी और न विरोधियों की।’’  लेखक यह भी जोड़ते हैं  ‘‘संविधान सभा में सभी भारतीय भाषायें हारी, विजयश्री तिलक अंग्रेजी के ललाट पर लगा। ’’

तीसरा विमर्श

इस अध्याय में राजीव रंजन गिरि ने लघु पत्रिका आंदोलन के  इस अंर्तविरोध की ओर ध्यान आकर्षित किया है  कि ‘‘सांप्रदायिक  शक्तियों के उभार को तो ये लोग ठीक-ठीक चिन्हित कर पाये हैं परन्तु जाति चेतना के प्रस्फुटन को व्याख्यायित करने में इनका बौद्धिक औजार भोथरा साबित हुआ।’’ लघु पत्रिका आंदोलन के संबंध में प्रख्यात कवि केदारनाथ सिंह की ये राय कि ‘‘ लघु पत्रिका आंदोलन भक्ति आंदोलन के बाद सबसे बड़ा आंदोलन है।’’ के बरअक्स राजीव ये  प्रतिप्रश्न पूछते हैं ‘‘ प्रतिमान  परिवर्तन का जो काम भक्ति आंदोलन ने किया था क्या वह लघु पत्रिका ने भी किया था ? ’’

शंभूनाथ और वीरभारत तलवार के बीच की  दिलचस्प बहसों से लघुपत्रिका आंदोलन की चुनौतियों  और अंर्तविरोधों पर रौशनी पड़ती है। 

हिंदी भाषा, साहित्य व आंदोलन में रूचि रखने वाले हर व्यक्ति को  ये किताब पढ़नी चाहिए।

 – अनीष अंकुर