भोपालः देश की बड़ी नदियों में श्रेष्ठ और महान नर्मदा का अपना विशिष्ट स्थान है. नर्मदा देश की एकलौती बड़ी नदी है, जो पश्चिम वाहिनी है. यही वजह है कि हिंदी समाज, साहित्य, धर्म, आस्था में इस नदी का विशिष्ट स्थान है. अमरकंटक से निकलकर पश्चिम की ओर यह अविरल चल देती है. ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती है, मानो पानी के भार से नीचे की ओर झुकती जाती है. मिथकों के अनुसार नर्मदा मन में शोण के विरह का ताप लिये हुए पश्चिम की ओर बह निकलती हैं. उसकी गति में ताप और स्वभाव में शीतलता है. नर्मदा तट के प्राचीन निवासियों विशेषकर गोण्ड समुदाय में कई तरह की प्रचलित कथा है, जिसे वे चित्र के माध्यम से व्यक्त करते रहे हैं. गोण्ड जनजाति के कुछ चुने हुए चित्रकारों ने अपनी स्मृति की नर्मदा एवं उनसे जुड़े विभिन्न मिथकों को चित्र रूप में सृजित किया है. मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय की प्रदर्शनी दीर्घा 'लिखन्दरा' के लोकार्पण अवसर पर मानवीय सभ्यता की साक्षी नदी 'नर्मदा' के अंकन से अधिक महत्त्वपूर्ण कुछ और नहीं हो सकता. नर्मदा स्मृति कथाओं के चित्र 'शाश्वत' प्रदर्शनी में अभिव्यक्त किये गये हैं.
एक लोक कथा के अनुसार शोण और नर्मदा के बीच प्रेम था, पर उनकी प्रणय कथा में जुहिला नामक सखी ने सब गड़बड़ कर दिया. हुआ यह कि नर्मदा ने एक बार जुहिला को दूती बनाकर अपना प्रणय संदेश शोणभद्र के पास भेजा. जुहिला ने शोण को देखा तो उनके व्यक्तित्व पर इस कदर मुग्ध हो गई कि सखी की मर्यादा भूल उसने स्वयं नर्मदा का रूप धरा और शोण का वरण कर लिया. यह बात जब नर्मदा को पता चली तो वह मारे क्रोध के उल्टे पाँव पश्चिम की ओर वेगवती होकर चलने लगीं. चट्टानों को तोड़ती, पहाड़ों को किनारे करती, उछलती, उत्ताल तरंगों से रव करती, वह बहती जाती हैं. पीछे मुड़कर फिर नहीं देखती. उधर शोण को इस रहस्य का पता चलता है, तो वह भी विरह सन्तप्त होकर अमरकंटक के उच्च शिखर से छलाँग लगा लेता है. पूर्व की ओर विरह-विधुर मन लिये बह निकलता है. बहता ही चला जाता है. कुछ दूर जाकर जुहिला उसे मना लेती है. उसमें मिल जाती है. उसमें समा जाती है. लेकिन नर्मदा और शोण दो प्रेमी दो विपरीत दिशाओं में बह निकलते हैं. तबसे इस धरती की करुणा विगलित होकर नर्मदा और शोण के स्वरूप में अजस्र बह रही है. नर्मदा शाश्वत, अनवरत और अविराम प्रवहमान हैं, इसलिये इनकी तटीय संस्कृति जीवंत है.