नई दिल्लीः काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर प्रभाकर सिंह के सहयोग से वाणी प्रकाशन की डिजिटल शिक्षा शृंखला के तहत 'हिंदी साहित्य का इतिहास: अध्ययन की नयी दृष्टि, विचारधारा और विमर्श' व्याख्यानमाला जारी है. इस व्याख्यानमाला के तहत हिंदी के जानेमाने लेखक, आलोचक, विद्वान प्राचार्य अपने अपने वक्तव्य रख रहे हैं. इसी क्रम में बारहवें व्याख्यान का विषय था 'इकोफ़ेमिनिज़्म'. इस विषय पर स्त्रीवादी समीक्षक और आलोचक के. वनजा ने. अपनी बात रखी. उन्होंने कहा कि 'इकोफ़ेमिनिज़्म' का अर्थ है पितृवादी और पूँजीवादी शोषण व्यवस्था का प्रतिरोध, प्रकृति के साथ और उसके अवयव के साथ स्त्री का साहचर्य जीवन. उन्होंने दावा किया कि इकोफ़ेमिनिज़्म के आध्यात्मिक और भौतिक दोनों रूप देखे जा सकते हैं. पश्चिम के चिन्तन में इसका व्यापकता से विवेचन किया गया लेकिन भारतीय चेतना में बौद्ध दर्शन से लेकर हमारी मिथकीय चेतना में इसके स्वरूप की पड़ताल की जा सकती है. मनुष्य को प्रकृति के साथ मिलकर, उसके साथ तालमेल बिठाकर जीवन संस्कृति का विकास करना चाहिए. यही इस दृष्टि की विशेषता है.
अपने वक्तव्य में वनजा ने इस बात की ओर इशारा किया कि पुरुषवादी और पूँजीवादी समाज ने स्त्री और प्रकृति को अपने अधीन रखने की लगातार कोशिश की है. उपभोक्तावादी संस्कृति ने स्त्री और प्रकृति को सबसे अधिक नुक़सान पहुंचाया. यह चिन्तन इसका प्रतिरोध करता है. हिंदी में जयशंकर प्रसाद की कृति 'कामायनी' की इकोफ़ेमिनिज़्म की दृष्टि से व्याख्या की जा सकती है. जिसमें श्रद्धा प्रकृति और मनुष्य के साथ संस्कृति के निर्माण की बात करती है. महादेवी वर्मा के लेखन में प्रकृति का स्त्री और जीव-जन्तुओं के साथ ख़ूबसूरत रिश्ता दिखाया गया है. समकालीन कवियों में चन्द्रकान्त देवताले और एकान्त श्रीवास्तव की कविता में इस दृष्टि को देखा जा सकता है. निर्मला पुतुल की कविता में आदिवासी स्त्री और प्रकृति का ख़ूबसूरत रूप है. उपन्यासों में 'कठगुलाब' और 'धार' जैसे उपन्यास इसके उदाहरण हैं. नाटक में जगदीश चन्द्र माथुर का 'पहला राजा' इकोफ़ेमिनिज़्म की दृष्टि से एक प्रमुख नाटक है. इस तरह इकोफ़ेमिनिज़्म स्त्रीवादी चेतना की एक व्यापक संवेदनशील और स्त्री और प्रकृति की पारिस्थितिकी की ख़ूबसूरत अवधारणा है.