खंडवाः वनमाली सृजन पीठ, सीवी रमन विश्वविद्यालय व रवींद्रनाथ टैगोर विश्वकला एवं संस्कृति केंद्र भोपाल ने खंडवा में 'नौ रसों के नौशाद' कार्यक्रम किया, जिसमें सिनेमा और साहित्य जगत की तमाम हस्तियों के साथ भारी संख्या में संगीत प्रेमी जुटे. भारतीय सिने संगीत परम्परा में नौशाद साहब एक अद्वितीय संगीतकार थे, जिन्होंने फिल्मों में गीतों के लिए संगीत रचना के साथ-साथ फिल्मों के लिए जिस तरह पार्श्व संगीत भी तैयार किया वह अत्युत्तम उदाहरणों में माना जाता है. इस अवसर पर डॉ अनिल चौबे द्वारा महान संगीतकार नौशाद पर तैयार किए गए लगभग ढाई घंटे के विशेष शो की प्रस्तुति हुई. यह शो महत्त्वपूर्ण दृश्यबन्धों, गीतों और उनकी व्याख्या पर एकाग्र है. यह इस शो की पहली प्रस्तुति थी. लगभग दो सौ गुणी श्रोताओं और दर्शकों के बीच बिना किसी शोर गुल या मोबाइल की टिनटिनाहट के सबने नौशाद साहब के सर्जनात्मक सफर की बानगी देखी. इस अवसर पर सिनेमा पर सर्वोत्तम लेखन के लिए 65वें नेशनल फिल्म अवार्ड से सम्मानित सिनेमा, संस्कृति के समालोचक सुनील मिश्र का अभिनंदन भी किया गया. कार्यक्रम में विनय उपाध्याय, शरद जैन, लुकमान मसूद, रवि चतुर्वेदी, गोविन्द शर्मा आदि की विशेष भूमिका रही.
याद रहे कि नौशाद को पहली बार 'सुनहरी मकड़ी' फिल्म में हारमोनियम बजाने का अवसर मिला. इसी बीच गीतकार दीनानाथ मधोक से उनकी मुलाकात हुई, तो उन्होंने उनका परिचय फिल्म इंडस्ट्री के अन्य लोगों से करवाया. 1940 में बनी 'प्रेम नगर' में को पहली बार स्वतंत्र रूप से संगीत निर्देशन का मौका मिला. इसके बाद एक और फिल्म 'स्टेशन मास्टर' भी सफल रही. उसके बाद तो जैसे नौशाद संगीत के मोतियों की माला-सी बुनते चले गए. यह नौशाद के संगीत का ही जादू था कि 'मुगल-ए-आजम', 'बैजू बावरा', 'अनमोल घड़ी', 'शारदा', 'आन', 'संजोग' आदि कई फिल्मों हिट ही नहीं बल्कि कालजयी हो गईं. 'बैजू बावरा' के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पहला फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिला. संगीत में अपने उल्लेखनीय योगदान के लिए वह 1982 में फालके अवॉर्ड, 1984 में लता अलंकरण तथा 1992 में पद्मभूषण से नवाजे गए थे.