भोपालः इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय भोपाल परिसर में तीन दिवसीय 'जनजातीय साहित्य महोत्सव 2018' संपन्न हुआ. इस आयोजन में जनजातीय साहित्य से जुड़े लेखकों, कवियों, कहानीकारों ने अपने लेख, कविता, कहानियां पढ़ने के अलावा   जनजातीय समुदाय की विविध परम्पराओं के पालन में आने वाली चुनौतियों को बताया. इस आयोजन में आदिवासी साहित्य और भाषाओं पर संगोष्ठी के साथ ही आदिवासी साहित्य के योगदान पर चर्चा तथा चिंतन हुआ. वक्ताओं ने एकमत से स्वीकारा कि वर्तमान ग्लोबलाइजेशन के दौर में सामाजिक मुद्दों पर विमर्श कहीं पिछड़ता जा रहा हैं. भौतिकतावादी सोच के चलते हम अपनी जड़ों, आदि संस्कृतियों से आने वाली पीढ़ी को दूर करते जा रहे हैँ. इन परिस्थितियों में आदिवासी साहित्य कहीं विलुप्त होता जा रहा है, साथ ही सृजन की प्रक्रिया पर भी विराम लग गया है. इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय, भोपाल का यह आयोजन आदिवासी जगत की सांस्कृतिक एवं साहित्यिक भंडार को मुख्य धारा में लाने के उद्देश्य में सफल रहा है. इस कार्यक्रम में साहित्यिक चर्चा के साथ ही सांस्कृतिक कार्यक्रम एवं पारंपरिक भोजन का भी आयोजन हुआ. उद्घाटन इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय अमरकंटक के कुलपति प्रो. टी.वी. कट्टमनी एवं संस्कृति मंत्रालय के  संयुक्त सचिव श्रवण कुमार ने किया. इस तीन दिवसीय आयोजन में जनजातीय काष्ठशिल्प पर उकेरित व्याख्याओं पर केंद्रित प्रदर्शनी काठे लेखा तो लगी ही, कलांजलि के तहत जनजातीय शिल्पकला पर आधारित कार्यशाला में देश भर के हस्त शिल्पकार जुटे.
जनजातीय साहित्य की पुस्तक प्रदर्शनी के साथ ही 'जनजातीय साहित्य: योगदान और चितंन' विषय पर परिचर्चा आयोजित हुई, जिसमें देश भर के जनजातीय समूहों के कथा वाचक, वाचिक परम्पराओं के विद्वान मौजूद रहे. कई शोध पत्र पढ़े गए. सांस्कृतिक कार्यक्रम में मणिपुर के मेतेई जनजातीय का ढोल चोलम, पुंग चोलम नृत्य, अरुणाचल प्रदेश के मीशी जनजातीय का जू-जू, जा-जा नृत्य व रिकमापाड़ा नृत्य, तथा मिजोरम के मिजो जनजातीय का चेराव नृत्य, सोलाकिया नृत्य भी काफी आकर्षक रहा. जायका के तहत झारखंड की उरावं, बस्तर की मुरिया, आंध्रप्रदेश का जाटापू, मणिपुर का काबोइ नागा, असम की करबी और मध्य प्रदेश की भील जनजातीयों के पारंपरिक व्यजंन छाए रहे. इस दौरान मणिपुर, असम, मध्य प्रदेश, आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़ के जनजातीय कलाकारों द्वारा बनाए गए भोजन की भी खूब तारीफ हुई. जो खास व्यंजन परोसे गए उनमें उरांव जनजाती, झारखंड की मड़वा रोटी, आलू, गोभी की सब्जी, काला चना-आलू सब्जी, गोडा चावल भात, टमाटर की चटनी, थेपा की चटनी, करबी जनजाति, असम के आन (चावल), मसूर दाल पूंपरी, बिलाही वोक सिम, किफी वोक हाओयख, नेम्पो चटनी, (काले तिल की चटनी), मिशिंग जनजाती, असम के पोरा ऐपिंग, सगाली मन्खा जलुब, पेरेत सम्पा (काली दाल), बजी रमेह (केले के फूल के भजीये), जतापू जनजाति, आंध्रप्रदेश के भोजन नेतालू (सूखी मछली) की सब्जी, पुल्ली हारा (लेमन राईस), उलावा चारू (रस्सम), कण्डे कोरो (फ्राई तूर दाल की दारी), कबुई नागा जनजाति, मणिपुर का भोजन येनकांगसोई, गं ताओथोंग (मछली करी), ईरोंबा (चटनी), उटी (सूखी मटर की दल), खीर, सिंगजू (सलाद) एवं बस्तर, छत्तीसगढ़ के पताल की चटनी, भात, चिकन करी एवं कुल्थी की दाल शामिल थी. कुल मिलाकर जनजातीय साहित्य महोत्सव 2018 की याद लंबे समय तक इसके आयोजकों और भागीदारों में बनी रहेगी.