दिल की न दिल में रह जाये , कुछ ऐसा कर इज़हार ज़रा
तू अपने दिल की कह डाले मैं अपनी तुझे सुनाऊंगा…यह ग़जल कादंबरी मेहरा की है. कादंबरी मेहरा 2 जून, 1945 को दिल्ली में पैदा हुईं और पूरा जीवन योरोप में गुजारा. पर इस दौरान भारत और भारतीयता से उनका नाता टूटा नहीं. वह ऐसी प्रतिष्ठित प्रवासी भारतीय कथाकारों में शुमार हैं, जिन्होंने पिछले कई दशक से अपने लेखन से दुनिया भर में न केवल हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है, बल्कि अपनी सकारात्मक सृजनात्मक उपस्थिति से समूचे हिंदी जगत के आलोचकों, साहित्यकारों का ध्यान अपनी ओर खींचा. कादंबरी मेहरा करीब पांच दशक से योरोप में हैं, लेकिन उनका लेखन विशुद्ध हिंदुस्तानी है.
मेहरा के लेखन की शुरुआत 13 वर्ष की उम्र में एक कहानी से हुई. स्कूल व कॉलेज में भी वह साहित्यिक गतिविधियों से जुड़ी रहीं. अंग्रेजी साहित्य में अध्ययन और अध्यापन के बावजूद उन्होंने हिंदी साहित्य को ही अपना कर्मक्षेत्र चुना. तीन साल पहले जब वह मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी के संस्कृति परिषद के 'अंतर्राष्ट्रीय संवाद' कार्यक्रम में पधारी, तब उन्होंने यहां राज्य की हिंदी लेखिका संघ की लेखिकाओं से मुलाकात की थी. यहां उन्होंने प्रवासी साहित्य के बारे में बताया था कि वहां पर भी सभी लेखक और लेखिकाएं समय-समय पर मिल कर बैठक करते हैं एवं अपनी रचनाएं सुनते-सुनाते हैं. उन्होंने कहा हम लोग आजीविका के कारण देश से दूर जरूर हैं, लेकिन हिंदी भाषा से, हिंदू संस्कृति से बिल्कुल भी दूर नहीं हैं. मेहरा की चर्चित रचनाओं में 'कुछ जग की', 'पथ के फूल' और 'रंगों के उस पार' प्रमुख रूप से शामिल है.