बोधिसत्व अपनी पीढ़ी के बेहद समर्थ कवि हैं। उनकी कविताएं कहन की दृष्टि से बेहद प्रौढ होती हैं। इनके अबतक चार कविता संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। 1991 में जब इनका पहला संग्रह 'सिर्फ कवि नहीं' प्रकाशित हुआ तो उसने आलोचकों का ध्यान अपनी ओर खींचा, हलांकि बोधि की कविताएँ पहले भी प्रकाशित होकर चर्चित हो रही थीं। इसके नौ साल बाद उनका दूसरा संग्रह 'हम जो नदियों का संगम हैं', प्रकाशित हुआ। 2004 में 'दुख तंत्र' और 2010 में 'खत्म नहीं होती बात' का प्रकाशन हुआ। मूलत: उत्तर प्रदेश के रहनेवाले बोधिसत्व इन दिनों मुंबई में रहते हैं। जागरण हिंदी के पाठकों के लिए पेश है उनकी कविता- लक्ष्य देखना।
लक्ष्य देखना
अर्जुन को
बहुत दूर से दिखी चिड़िया की आँख
उसने सफलता से किया लक्ष्य संधान।
अर्जुन को खौलते जल में दिख गई
ऊपर चक्र में घूमती मछली की आँख
उसने फिर सफलता पाई
भेद कर आँख।
किंतु लक्ष्य और सफलता के लिए विकल
धनुर्धर वह कभी झाँक नहीं पाया
द्रौपदी की डबडबाई आँखों में।
हर स्थिति में जीतने की सोच
अक्सर बड़ी पराजय के कुरुक्षेत्र में
उस कुचक्र तक पहुँचा देती है जहाँ निहत्थे सूतपुत्र को
उसके रथ का चक्र निकालते समय भी मार देने
को धर्म मान लेता है मन।
सिर्फ लक्ष्य संधान ही रह जाता है जीवित।
हम भूल जाते हैं कि
किसी की नम आँखों में झाँकने के लिए
अपनी आँखों में भी पानी आवश्यक होता है
और उलझन की बात यह है कि
पानी भरी आँखें
लक्ष्य संधान में
व्यवधान कर जाती हैं।
चिड़ियों मछलियों की आँखों पर
निशाना साधने वाला अर्जुन
जीवन भर लक्ष्य से भटकता रहा
मछली की आँख में लगा बाण
द्रुपदसुता को जीवन भर खटकता रहा।
चूक जाए निशाना भले
असफलता का खतरा उठाकर भी
देखना तो आँखों में देखना
झाँकना तो मन में झाँकना।