19 जुलाई- काशी में सिर्फ संस्कृति ही नहीं साहित्य की गंगा भी बहती है, तभी तो महज एक वर्ष के प्रवास में मेरा नया गजल -संग्रहशिखरों के सोपानइतना जल्दी प्रकाशित हो कर आप सबके बीच पहुंचने वाला है. यह कहना है गजलकार कमलेश भट्ट कमल का. 13 फरवरी 1959 को सुल्तानपुर में जन्में कमलेश भट्ट कमल ने गजल के अलावा हाइकु, यात्रा-वृतांत, समीक्षा, लेख, साक्षात्कार एवं बाल साहित्य की विधा में भी खूब लिखा, पर मूलतः उनकी पहचान गजलकार की ही रही. इससे पहले कमल के तीन गजल-संग्रह काफी लंबे-लंबे अंतराल पर आए थे. साल 2001 में  ‘शंख सीपी रेत पानी‘, 2009 मेंमैं नदी की सोचता हूंऔर 2015 मेंपहाड़ों से समन्दर तकछपा था.

 

गजल-संग्रहों के इतने लंबे अंतराल में प्रकाशन की वजह पर कमल का मानना है कि इस विधा की संजीदगी समय की मांग करती है. मैं अभी भी खुद को प्रारंभिक कक्षा का विद्यार्थी मानता हूं. हिन्दी गजल उर्दू का कायान्तरण नहीं, बल्कि पुनर्जन्म है. यही वजह है कि हिन्दी जैसे विराट जन मानस और चेतना वाली भाषा में अगर गजल का जादू सिर चढ़ कर बोल रहा है तो यह उसकी अंदरूनी ताकत की वजह से है. दुष्यंत कुमार और उनके बाद की हिन्दी गजल की पूरी दुनिया वास्तव में एक अलग और जिन्दादिल धड़कती दुनिया है.

 

वाराणसी के कन्हैया लाल स्मृति भवन सभागार में रोटरी क्लब वाराणसी शिवगंगा द्वारा 22 जुलाई को आयोजित साहित्य-संगोष्ठी के दौरान शिखरों के सोपानका विमोचन होगा. कवि ज्ञानेन्द्र पति, प्रोफेसर वशिष्ठ अनूप, डॉ जितेन्द्र नाथ मिश्र की मौजूदगी में कबीर मठ मूलगादी के प्रमुख संत विवेक दास कार्यक्रम की अध्यक्षता करेंगे.  ‘शिखरों के सोपानका प्रकाशन विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी ने किया है, और इसमें  कमलेश भट्ट कमल की कुल 108 गजल संकलित हैं. पुस्तक का मूल्य 225 रुपए है. जागरण हिंदी के पाठकों के लिए प्रस्तुत है इसी संग्रह से एक गजलः

 

अहं किस बात का….

 

अहं किस बात का पालूं कि जाएगा बदल कितना

मेरा इतने बड़े संसार में है दखल कितना!

 

सफर तय कर ही लेता जैसे-तैसे मैं अकेले खुद

तुम्हारा साथ होने भर से मिल जाता है बल कितना!

 

अजब सी बात है पीने की खातिर है बहुत कम-कम

दिखाई दे रहा है हर तरफ धरती पे जल कितना!

 

वजूद अपना बचाने में बहुत कुछ खो दिया मैंने 

वजूद अपना मिटाकर पाना होता है सरल कितना!

 

तुम्हारे पास दो पल भी नहीं है चैन के अपने

बताते हो तुम अपने आपको यूं तो सफल कितना!

 

अभी कल ही तो बचपन था अभी कल ही जवानी थी

बदल देता है चीजों को, समय भी है चपल कितना!

 

उसे भी भेद ही देगी बहुत पतली किरन कोई

अंधेरा देखने में चाहे लगता हो सबल कितना! 

 

सरोवर लाख गहरा हो भी तो क्या फर्क पड़ता है

कोई देखे कि उसमें डूबता भी है कमल कितना!