पटनाः कोई कवि कम लिख कर भी लंबे समय तक चर्चित रह सकता है, अगर इसको जांचना हो तो सीधे एक ही नाम सामने आता है वह है आलोक धन्वा का. शायद यही वजह है कि कोरोना के समय में भी जब उनका जन्मदिन आया तो हिंदी साहित्य जगत ने उनकी चर्चा की. सोशल मीडिया पर बिहार, हिंदी और वाम विचारधारा से जुड़े लेखकों ने पोस्ट डाले. सबने आलोक धन्वा के कम लिखकर भी चर्चा में रहने की बात कही और उनके काव्य कौशल को याद किया.धन्वा ने अपनी कविताओं को क्रांति और विद्रोह से तो जोड़ा ही प्यार और छोटे – छोटे विंबों को भी शब्द और संवेदना दी. दो जुलाई, 1948 को बिहार के मुंगेर जिले में उनका जन्म हुआ. वह लंबे समय तक चुप रहे. पर जेपी आंदोलन, आपातकाल, संपूर्ण क्रांति, के दौर में उन्होंने कविता को एक नई पहचान दी. उनकी कविताओं में गोली दागो पोस्टर, जनता का आदमी, भागी हुई लड़कियां, कपड़े के जूते और ब्रूनों की बेटियां को खूब चर्चा मिली. उनकी पहली कविता 'वाम' पत्रिका में छपी जिसने उन्हें खूब चर्चा दिलाई. बाद में उनका एक कविता संग्रह 'दुनिया रोज़ बनती है'  नाम से आया. उसे छपे भी बाइस साल हो चुके हैं.
हालांकि पटना की गंभीर काव्य गोष्ठियों में, पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएं सत्तर के दशक में ही छपने लगी थीं.  नक्सलबाड़ी आंदोलन से उनका लगाव था. फिर भी उन्होंने प्रेम को भी जिया और अपने दौर की भागती हुई लड़कियों पर भी लिखा. उनकी कविताओं में नींद, प्या‍र, नदियां, शरद की रातें, चौक, किसने बचाया मेरी आत्मा को, आम के बाग, गाय का बछड़ा, नन्हीं बुलबुल के तराने, रेशमा, भूल, छतों पर लड़कियां, समुद्र और चांद, पानी, मैटिनी शो, चेन्नई में कोयल, बारिश, ओस और आम के बाग़ और श्रृंगार तक पर कविताएं हैं. आलोक धन्वा को अब तक अधिकांश विद्रोही कवियों के नाम पर रखे गए सम्मान मिल चुके हैं, जिनमें पहल सम्मान, नागार्जुन सम्मान, फिराक गोरखपुरी सम्मान, गिरिजा कुमार माथुर सम्मान, भवानी प्रसाद मिश्र स्मृति सम्मान, प्रकाश जैन स्मृति सम्मान मिल चुका है. वह बिहार संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष भी रहे और महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में राइटर इन रेजीडेंस भी. आलोक धन्वा को मंच पर सुनना भी अपनी तरह का एक अनुभव है.