कवि केदारनाथ अग्रवाल उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के कमासिन गांव में 1 अप्रैल, 1911 को पैदा हुए थे. वह प्रकृति, मानवता और संघर्ष के कवि थे. कविता उन्हें विरासत में पिता हनुमान प्रसाद अग्रवाल से मिली थी, जिनका उस जमाने में ‘मधुरिम’ नामक काव्य संकलन प्रकाशित हो चुका था. ग्रामीण परिवेश में रहने के चलते केदारनाथ अग्रवाल के मन में सामुदायिक संस्कार और प्रकृति के प्रति लगाव पैदा हुआ, जिसमें परिवार से मिली काव्य-सृजन की प्रेरणा ने जीवन भर गांव को उनकी कविताओं में जिंदा रखा. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान ही उन्होंने लिखने की शुरुआत कर दी थी. प्रयाग के साहित्यिक परिवेश के असर से केदारनाथ अग्रवाल की काव्य-यात्रा का आरंभ हुआ. यह वर्ष 1930 की बात है. हिंदी साहित्य के इतिहास को समझने में केदारनाथ अग्रवाल के काव्य-संग्रह ‘युग की गंगा’ बहुत उपयोगी है, जिसका प्रकाशन देश के आजाद होने से पहले ही मार्च, 1947 में ही हो चुका था.
देश गुलाम था और अंग्रेज व जमींदार शोषक इसीलिए कवि केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं में भारत की धरती की सुगंध और आस्था का स्वर मिलता है. वह किसी भी तरह के शोषण के विरोधी थे. जनसाधारण के जीवन की गहरी व व्यापक संवेदनाओं को केदारनाथ अग्रवाल ने अपनी कविताओं में व्यक्त किया. मानवता, मनुष्य के संघर्ष उनकी कविताओं के प्रेरक तत्व थे. केदारनाथ अग्रवाल के लगभग 23 कविता संग्रह, अनूदित कविताओं का संकलन, निबंध संग्रह, उपन्यास, यात्रा-वृत्तांत, साक्षात्कार संकलन और एक पत्र-संकलन सहित ढाई दर्जन से अधिक कृतियां प्रकाशित हुईं, जिनमें ‘युग की गंगा’, ‘फूल नहीं, रंग बोलते हैं’, ‘गुलमेंहदी’, ‘हे मेरी तुम!’, ‘बोलेबोल अबोल’, ‘जमुन जल तुम’, ‘कहें केदार खरी खरी’ और ‘मार प्यार की थापें’ काफी चर्चित रहे. यात्रा संस्मरण ‘बस्ती खिले गुलाबों की’, तो उपन्यास ‘पतिया’, ‘बैल बाजी मार ले गये’ नाम से छपा. निबंध संग्रह ‘समय समय पर’, ‘विचार बोध’, ‘विवेक विवेचन’ नाम से प्रकाशित और चर्चित हुए. उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, हिंदी संस्थान पुरस्कार, तुलसी पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया था.