बोधिसत्व


नामवर जी नहीं रहे। हर हिंदी वाले के पास नामवर जी के अनेक संस्करण और संस्मरण होंगे। मैं नामवर जी को लेकर बात यहीं से आरंभ करूं तो बेहतर होगा कि मैं हिंदी में नामवर जी के कारण ही हूं। उन्होंने एक साथ मेरी 14 कविताएं आलोचना पत्रिका में  संपादकीय नोट्स के साथ प्रकाशित करके हिंदी समाज से मुखातिब कराया । और हमेशा लिखने के लिए प्रेरित करते रहे। उनका कहना था कि बहुत नहीं बेहतर लिखो। कम लिखो लेकिन अर्थपूर्ण लिखो। और उनकी बातें मुझे सदैव अपनी लगती थीं क्योंकि मेरे लिए वे मेरे ग्राम प्रधान की तरह थे। जो अपनी ग्राम पंचायत का संरक्षक भी होता है और निवासी भी। 

मैं इलाहाबाद नया नया आया ही था। 1986 के दिसंबर की बात होगी। कवि लक्ष्मीकांत वर्मा जी के भतीजे विमल ज्योति वर्मा ने बहुत उत्साह और थोड़े संकोच के साथ बताया की दिल्ली से नामवर जी आए हैं। पॉलीटेक्निक में उनका एक व्याख्यान होना है। मैं भी वहां गया और मैंने पाया कि एक आदमी धोती कुर्ता पहने। मुंह में पान दबाए मंच पर विराजमान लोगों में सबसे अलग दिख रहा है। विमल ने बताया कि यही नामवर जी हैं। मुझे पहली बार में लगा कि ये तो मेरे गांव के प्रधान जी हैं। बस इसके उद्धरण प्रधान जी से अलग हैं। बात का लहजा वही ग्रामीण लेकिन बातों का मर्म अखिल भारतीय। 

वहां नामवर जी ने जो बोला वह जितना याद है उतना यह है कि दंगा एक मजबूत समुदाय द्वारा निर्बल समुदाय पर थोपा गया युद्ध होता है। और फिर भारत में दंगों का इतिहास बताते हुए वे कबीर के उस दोहे पर आए की कैसे कट्टरता समाज और सहिष्णुता का शत्रु है और असहिष्णु समाज नष्ट ही जाते हैं। नामवर जी ने उस भाषण में ऐसा याद आता है यह भी कहा था कि वर्णवाद ही असहिष्णुता और साम्प्रदायिकता को पोषित और विकसित करता है। 

उस दिन भाषण तो बहुत से हुए लेकिन और कौन क्या बोला कुछ भी याद नहीं रहा। हम भी कहने को जनवादी हो गए थे लेकिन हम भीतर से एक जातिवादी और वर्ण उच्चता के अपने पिछले बंधन में बंधे थे। हमें नामवर जी का वह भाषण भीतर तक छील गया था। भाषण के बाद हम उनको दूर से जाते देखते रहे। वे गए लेकिन उनका संबोधन मन में बसे वर्ण के जड़ विधान को हिला गया।  आगे नामवर जी को कम से कम पचास बार तो मंच से बोलते सुना ही होगा। या और भी। सही सही गिनती नहीं सकता। हर बार नया बोलते थे हर बार गहराई और व्यापकता के साथ अपनी बात लेकर ही वे अपना भाषण पूरा करते थे। उनके उदाहरण घर और समाज के अपने होते थे। एक बार हिंदी विभाग में नामवर जी का व्याख्यान था। ऐसा ध्यान आता है कि निराला व्याख्यान माला का ही भाषण था। उसमें उनको लगातार दो भाषण देने थे। नामवर जी को हिंदी के एक अध्यापक प्रोफेसर राम कमल राय जी ने एक प्रस्तावना के बाद बोलने के लिए बुलाया। नामवर जी ने रामकमाल जी की कुछ बातों का उत्तर देकर अपनी बात का श्रीगणेश किया ही था कि रामकमल राय जी ने नामवर जी को यह कहते हुए टोका की नामवर जी अपनी बात कहें। इसका उत्तर नामवर जी ने यह कह कर दिया कि मेरे पहले का पुजारी इतनी गंदगी छोड़ कर गया है कि में उसे साफ किए बिना अपनी पूजा नहीं आरंभ कर सकता। उनके इस उत्तर से पूरी सभा सन्नाटे में आ गई और नामवर जी ने रामकमल जी की सारी प्रस्तावना को ध्वस्त करके अपनी बात रखी।

याद करने को नामवर जी की अनेक बातें हैं। वे हमारे लिए एक पूरा युग हैं । 32 सालों में कितने कठिन मोड़ पर नामवर जी कुछ उन लोगों में रहे जिन्होंने यह पूछा कि मुंबई में सुरक्षित तो हो। काम धाम है ना। उनकी चिंता  हवा हवाई नहीं रही कभी भी। 

मेरी शादी में नहीं आए तो तार किया और मंगल कामनाओं के साथ आशीर्वाद लिख भेजा। आगे मिलने पर कहा कि सही समय पर तुम विवाह कर लिए हो। रोजगार का विवाह से कोई संबंध नहीं होता। लेकिन रोजगार की चिंता करते रहो।  हमारे लिए वे बड़े आलोचक नहीं हमारे घर के बुजुर्ग थे। उनसे मिलकर हमेशा गौरव का बोध होता था। बाद के दिनों में भी वे हमेशा सजग और सुचिंतित ही मिले। उनको अनावश्यक इधर उधर की बात करते नहीं पाया। कविता कहानी उपन्यास और लेखन में नई बातों के साथ प्राचीन साहित्य को घोलते वे ऐसे मर्मज्ञ थे वे जो कि आपको सक्रिय बनाता है और ऊर्जा से भरता है।

नामवर जी का विदा होना हिन्दी और उर्दू की बस्ती का एक अलंग उजाड़ होने की तरह है। वे जितने हिंदी के थे उतने ही उर्दू के भी थे। फिराक साहब पर और मीर, गालिब पर जो गहन आंकलन- विश्लेषण नामवर जी का है उससे सभी परिचित हैं। वे उतने ही मराठी के भी थे और बंगाली के भी। वे जितने नारायण सुर्वे के थे उतने ही सुभाष मुखोपाध्याय के भी। वे सबके अपने थे। सबके अपने हैं। जैसे सबके अपने अपने राम वैसे ही सबके अपने अपने नामवर। 

नामवर जी: दो प्रसंग और

प्रसंग: एक

1996 की बात होगी। मैं इलाहाबाद से दिल्ली अपने किसी काम से जा रहा था। नामवर जी को फोन किया कि आ रहा हूं आप होंगें। नामवर जी बोले रहूंगा। आओ। फिर बोले रमेश चन्द्र द्विवेदी की किताब फिराक साहब लेते आओ। मैं रामनारायण लाल की दूकान कटरा गया और किताब की एक प्रति ले ली। दिल्ली जाने पर नामवर जी को उसी दिन दे आया। एक दिन के अंतराल के बाद फिर मिलने गया तो वे वज्र आसान में बैठे फिराक साहब पर लेख लिख रहे थे। बोले अच्छी किताब है रमेश जी की।  फिराक साहब पर ऐसा कोई नहीं लिख सकता। तुमने पढ़ी है। मैंने कहा कि नहीं। इलाहाबाद में लोग कहे की रमेश जी भी कोई लेखक हैं। वे तो फिराक साहब के मुंशी है और किताब खराब है। नामवर जी ने कहा किसी के कहने पर किसी भी बारे में अपनी राय नहीं बनाओ…किसी लेखक और रचना के बारे में तो कत्तई नहीं… खुद पढ़ कर देखो फिर राय बनाओ। 

प्रसंग: दो

2017 की बात है। मैं और प्रिय मित्र और छोटे भाई रवि शंकर पाण्डेय नामवर जी से मिलने गए। जाड़ा थोड़ा थोड़ा ही बाकी था। 24 फरवरी का दिन था। हम पहुंचे ही थे कि तभी किसी का फोन आया। नामवर जी उस फोन पर प्रणाम करके उधर वाले व्यक्ति से आशीर्वाद मांगने लगे। आशीर्वाद ऐसा की नामवर जी का स्वास्थ्य ठीक रहे और वे अपने बाकी लिखाई के काम पूरे कर पाएं। और उधर से पूरा आशीर्वाद दिया गया। नामवर जी खूब खुश हुए और आभार प्रकट करते हुए प्रणाम करके फोन रख दिया। उनकी खुशी देखने लायक थी। मेरी उत्कंठा यह थी की इस वय में कौन है जिससे नामवर जी आशीर्वाद मांग रहे हैं। मैंने उत्सुकता में पूछा कि किसका फोन था। नामवर जी ने बताया रेवा प्रसाद द्विवेदी जी का फोन था। मैंने कहा कि वे तो आपसे वय में छोटे होंगें। नामवर जी ने कहा कि वे मुझसे वय में छोटे हैं लेकिन ज्ञान में बहुत बड़े हैं और शुभ आकांक्षी है,  ब्राह्मण हैं। उन्हीं दिनों रेवा प्रसाद जी को कोई सम्मान मिला था। फिर बहुत देर तक रेवा जी की बातों के साथ संस्कृत और संस्कृति पर बोलते रहे। हम चकित थे। रवि भी। रवि ने कहा कि अगर नामवर जी के साथ केवल सुनने बैठा जाए तो भी आदमी विद्वान हो जाए। लेकिन आज कौन सुनता है अपने बुजुर्गों को।  किसे ज्ञान चाहिए?

(नोट: इलाहाबाद वाले हिस्से में दिन और तारीखें कुछ आगे पीछे हो सकती हैं।)