लखनऊः हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर शंकर सुल्तानपुरी नहीं रहे. उन्होंने कहानी, कविता, नाटक, उपन्यास, एकांकी, रेडियो नाटक, चित्र- कथा जैसी अनेक विधाओं में सृजन किया और 500 से भी अधिक कृतियों से हिंदी साहित्य जगत में अपनी पहचान बनाई. वह पिछले कई महीनों से अस्वस्थ चल रहे थे. शंकर सुल्तानपुरी साहित्य के माध्यम से सदैव जीवन मूल्यों की रक्षा के हामी रहे. कथनी और करनी में रंच मात्र भेद भी उन्हें स्वीकार नहीं था. अपने समय के बड़े साहित्यकारों महादेवी वर्मा, निराला, प्रेमचंद, भगवती चरण वर्मा, यशपाल, अमृतलाल नागर आदि से उनके ताल्लुकात रहे और वे इन सभी की रचनाओं सम्मान की दृष्टि से देखने के साथ उनसे प्रेरणा पाते रहे. 

शंकर सुल्तानपुरी का जन्म 1 दिसंबर, 1940 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के परऊपुर नामक गांव में हुआ था. मसिजीवी सुल्तानपुरी ने साहित्य की अपनी धुन में घर-परिवार से ऊपर साहित्य को रखा और बाल साहित्य तो जैसे उनकी सांसें था. उनका मानना था कि वे करोड़ों बच्चों में बंटे हुए हैं. शंकर सुल्तानपुरी ने लेखकीय स्वाभिमान और सम्मान के लिए संघर्ष करते हुए पूरा जीवन साहित्य के लिए खपाया. वे जब तक उठने -बैठने की स्थिति में रहे, जब तक उनके हाथ- पांव साथ देते रहे, उन्होंने साहित्य लेखन को कभी विराम नहीं दिया. मूल्यों को जीवन समझने वाले साहित्यकारों की पीढ़ी के वे कदाचित अंतिम रचनाकार थे. नवगीतकार कमलेश भट्ट कमल के अनुसार शंकर सुल्तानपुरी का जाना हिंदी साहित्य खासकर बाल साहित्य की एक बहुत बड़ी क्षति है.