कैलाशचंद्र झा ऐसे नामचीन शख्स हैं जिन्होंने  बिहार की ऐतिहासिक महत्व की  कई महत्वपूर्ण  सामग्रियों के दस्तावेज़ीकरण में प्रमुख भूमिका निभाई  है। उन्होंने मिथिला के पंजी , शिवपूजन सहाय के उनवास , गवर्नमेंट प्रेस, गुलजारबाग  तथा इनसाक्लोपीडिया मुंडारिका  को सहेज कर सावर्जनिक रूप से उपलब्लाध कराने में महती भूमिका निभाई।  इस लंबी प्रक्रिया में उन्हों काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। जागरणहिंदी के लिए अनीश अंकुर की बातचीत पर आधारित यह लेख: 


आचार्य शिवपूजन सहाय की   'वागेश्वरी पुस्तकालय, उनवासकी सारी पत्र-पत्रिकाएं (1914-1962)  बक्सर से ट्रेन द्वारा दिल्ली ले जाया गया। उनवास बक्सर से 16 कि.मी की दूरी पर है। आचार्य शिवपूजन  सहाय जी के पुत्रों डॉ आनंदमूर्ति और डॉ मंगलमूर्ति  के अलावा कर्मेंदु शिशिर का सहयोग मिला। कुछ प्रमुख पत्रिकाएं- सरस्वती, हंस, चांद, माधुरी, मतवाला, विशालभारत, हुंकार, जनता, पाटलिपुत्रा, प्रताप, नागिरी प्रचारिणी सभा, साहित्य सम्मेलन की पत्रिका प्रमुख थीं।  मुंशी प्रेमचंद, गणेश शंकर विद्यार्थी, सूर्यकांत त्रिपाठी' निराला', बनारसीदास चतुर्वेदी  जैसे  बड़े लोग   इसके  संपादक थे। इन सभी पत्रिकाओं की माइक्रोफिल्मिंग की गई। माइक्रोफिल्मिंग  की एक प्रति मैंने खुद ले जाकर डॉ रवींद्र कुमार( निदेशक, नेहरू म्यूजियम मेमोरियल एंड लाइब्रेरी)  को  दी। उनवास की समूची समाग्री वहां माइक्रोफिल्म के रूप में उपलब्ध है।

पटना के गुलजारबाग स्थित चैतन्य पुस्तकालय के संरक्षक बाबू राजेन्द्र प्रसाद हुआ करते थे। डॉ मंगलमूर्ति मुझे  वहां  ले गए और गोस्वामी जी  से  परिचय कराया। वहां की एकत्रित सामग्रियों का माइक्रोफिल्मिंग शुरू हुआ। बिहार के पहले अखबार 'बिहार बंधु' का दातावेज़ीकरण की योजना थी।   लेकिन गोस्वामी जी के असमायिक देहावसान हो जाने के कारण कार्य पूरा न हो सका। 

'गुलजारबाग  गवर्नमेंट प्रेस ' के स्टोर की छानबीन करते हुए मैंने  एम.एच अर्नोट  " फोटोग्राफ्स ऑफ द  रिपेअर्स एकसेक्यूटेड टू सम ऑफ द प्रिंसिपल टेम्पल्स ऑफ भुवनेश्वर एंड केव्स इन खंडहरी एंड  उदयगिरि हिल्स" की तीन प्रतियां देखीं।  मैं एक प्रति के लिए प्रयास करने लगा । स्टोर के कर्मचारी रोड़े लगाने लगे।  इस कहानी का सुखद अंत यह है कि इस पुस्तक की कीमत , बिहार सरकार के वित्त विभाग द्वारा , 700 रु तय किया गया जिसे  लाइब्रेरी ऑफ कांग्रेस ने भुगतान कर दिया। उसकी 32 प्रतियां और मिली, जिसे आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, दिल्ली की लाइब्रेरी, भुवनेश्वर की लाइब्रेरी आदि में भेजा गया। 

इनसाइक्लोपीडिया मुंडारिका की खोज मैंने 1980 में शुरू किया। इसके पूरे संकलन में 2 वर्ष से अधिक समय  लग गए। इसके 1 से 13 खंड जो 1930 से 1940 के दशक में प्रकाशित हुए थे। प्रकाशित खण्ड दयनीय हालत में थे।  इसमें आदिवासी इलाके की भाषा , संस्कृति, रहन-सहन आदि का विशद अध्ययन मौजूद है। इसका इलस्ट्रेशन वॉल्यूम मुझे पटना विश्विद्यालय में मिला। मैं खण्ड 15  और 16 के खोज में लगा था ।   खण्ड टी और खण्ड यू क्रमशः 1978 1979 में डॉ   डी.के सिंह की पहल पर छपा था। तब इसकी मात्र तीन-चार प्रतियां ही बनी थी। टी खण्ड  के पृष्ठ मैंने गुलजारबाग में ही इकट्ठा करना शुरू किया था जो उस समय फार्मा  की अवस्था में पड़ा  हुआ था। 

ख़ोजते ख़ोजते टी खंड पी. पोनेट ने अपने राँची स्थित बिशप लाइब्रेरी से  उपलब्ध कराया। खण्ड 16 की प्रति गवर्नमेंट प्रेस, रांची में फाइल कॉपी के रूप में थी। वहां के  कर्मचारी ने उसे   उपलब्ध कराया। मेरी लगन व कर्मठता देख वो कर्मचारी और फादर पोनेट प्रभावित हुए। इस तरह विश्व में पहली बार इनसाइक्लोपीडिया मुंडारिका के सारे खण्ड एक साथ एकत्रित हुए। इसे 1982 में यू.एस लाइब्रेरी ऑफ कांग्रेस  ने माइक्रोफिल्म किया। 

 इस तरह बने सेट को मैंने ज्ञान पब्लिशिंग हाउस के स्तकारी मुखोपाध्याय  पहल ओर दिया।  इस तरह पहली  दफे  इनसाइक्लोपीडिया मुंडारिका   1990 में प्रकाशित होकर दुनिया के सामने आया।