खैरागढ़ः इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ के नाट्य विभाग ने 'भारतीय रंग परंपरा में आधुनिक बोध' पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया है. आगामी 19 और 20 नवंबर को स्थानीय प्रेक्षागृह में आयोजित इस संगोष्ठी में देश के बहुचर्चित व प्रतिष्ठित रंगकर्मी, साहित्यकार, आलोचक, कवि हिस्सा लेंगे. इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय एशिया के उन कुछ चुनिंदा संस्थानों में से है, जो संगीत और कला को पूरी तरह समर्पित है. विश्वविद्यालय ने इसके लिए एक संयोजक मंडल बनाया है, जिसके संरक्षक खुद कुलपति प्रोफेसर डॉ मांडवी सिंह हैं. मार्गदर्शन कला संकाय के अधिष्ठाता प्रोफेसर आईडी तिवारी का है और संयोजक डॉ योगेंद्र चौबे हैं. आयोजन समिति में अतिथि व्याख्याता शिशु कुमार सिंह और श्रीधर पांडेय के अलावा शोधार्थी चैतन्य आठले और आनंद पांडेय को भी शामिल किया गया है. 
थिएटर विभाग के सहायक प्राध्यापक डॉ योगेंद्र चौबे, जो इस कार्यक्रम के संयोजक भी हैं ने कार्यक्रम में आमंत्रित विद्वान, विशेषज्ञों का खुलासा करते हुए बताया कि इस कार्यक्रम में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व निदेशक प्रो. वामन केंद्रे, सुप्रसिद्ध समीक्षक साहित्यकार प्रो. सत्यदेव त्रिपाठी, नाटककार प्रताप सहगल, संगीत नाटक अकादमी से सम्मानित रंगकर्मी राजकमल नायक, साहित्यकार गिरीश पंकज, नाटककार अख्तार अली, डॉ. जीवन यदु 'राही', डॉ मुन्ना कुमार पाण्डेय, डॉ सतीश पावड़े, अशोक आनंद, प्रो. डॉ गोरेलाल चंदेल, सुभाष मिश्रा, डॉ सुभद्रा राठौड़, आनंद हर्षुल, योग मिश्रा और वसंत वीर उपाध्याय जैसी दिग्गज हस्तियां शिरकत करेंगी. डॉ चौबे के अनुसार इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ ( नैक से A ग्रेड प्राप्त ) संस्थान है और रंगमंच से जुड़ी इस तरह की गतिविधियों में लगातार सक्रिय भूमिका निभा रहा है और राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय स्तर की संगोष्ठी, परिचर्चा व आयोजन करता ही रहता है. इस तरह का यह चौथा आयोजन है. इसके पूर्व सुप्रसिद्ध रंगकर्मी स्व हबीब तनवीर तथा ब. ब कारन्त व हबीब साहब के बहाने परम्परागत रंगकर्म को समझने के साथ ही एक अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार भी यह विभाग आयोजित कर चुका है, जिसमे प्रो. नामवर सिंह, प्रो देवेंद्रराज अंकुर,अशोक वाजपेयी, हृषिकेश सुलभ, अलखनंदन, एम के रैना, के एस राजेंद्रन जैसे विद्वानों का आगमन हुआ है. विभाग प्रशिक्षण व शिक्षण के बीच सामंजस्य स्थापित करते हुए निरन्तर वर्कशॉप आदि का आयोजन भी एनएसडी के सहयोग से करता आया है. इस बार की संगोष्ठी अपनी परम्परा में आये बदलाव और उसमें छिपे आधुनिकता बोध को तलाशने की कोशिश भी है, क्योंकि जब भी हम आधुनिकता की बात करते हैं तो हमारा रिफरेंस हमेशा यूरोपीय ही होता है.