नई दिल्ली: व्यंग्य और कविता, साहित्य की दो ऐसी विधाएं, जो शिल्प और शैली में अलग होते हुए भी उद्देश्य की दृष्टि से एक हैं. फिर भी काव्य की तुलना में गंभीर साहित्य ने व्यंग्य को उसका प्राप्य नहीं दिया. दैनिक जागरण की इस बात के लिए तारीफ की जानी चाहिए कि उसने राजधानी के अपने एक बड़े कार्यक्रम में व्यंग्य को कविता की बराबरी में ला बिठा दिया. राजधानी के रविन्द्र भवन स्थित साहित्य अकादमी सभागार में दैनिक जागरण 'सान्निध्य' में जुटे देश की चोटी के व्यंग्यकारों का सर्वसम्मत उद्गार कमोवेश ऐसा ही था. दैनिक जागरण 'सान्निध्य' के नाम से साहित्यकारों की यह अनौपचारिक बैठक राजधानी में हर महीने के दूसरे शनिवार को साहित्य अकादमी सभागार में में आयोजित होती है. अक्तूबर के दूसरे शनिवार को 'दैनिक जागरण सान्निध्य' के दो सत्रों का यह दूसरा आयोजन व्यंग्य और कविता को समर्पित था. कार्यक्रम की शुरुआत में 'सान्निध्य' में शामिल वरिष्ठ कवियों, रचनाकारों, स्तंभकारों और रंगकर्मियों से लेकर नवोदित रचनाकारों और साहित्य-कला प्रेमी श्रोताओं का स्वागत करते हुए दैनिक जागरण के सहयोगी संपादक अनंत विजय ने दैनिक जागरण के 'हिंदी है हम' मुहिम के तहत चलाए जा रहे कार्यक्रमों का जिक्र किया. उनका कहना था कि दैनिक जागरण की यह मुहिम अपनी भाषा हिंदी को मजबूती दिलाने के लिए है. चाहे 'सृजन' हो, 'वार्तालाप', 'संवादी', 'हिंदी बेस्टसेलर' या 'ज्ञानवृत्ति' सभी के मूल में हिंदी है. जहां तक 'दैनिक जागरण सान्निध्य' की बात है, हम राजधानी सहित दूसरे कई शहरों में 'बैठकी' की उस परंपरा को पुनर्स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं, जो आभासी दुनिया के प्रभाव से क्षीण होने लगी थी. स्वागत वक्तव्य के बाद पहला सत्र 'व्यंग्य की समकालीनता पर विमर्श और व्यंग्य पाठ का था, जिसका संचालन व्यंग्यकार लालित्य ललित ने किया. इस सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय ने की. इस सत्र की खास बात यह रही कि इसमें कई पीढ़ियों के व्यंग्यकार उपस्थित रहे और अध्यक्ष तथा संचालक सहित सुभाष चंदर, आलोक पुराणिक, सुनीता शानू व पियूष पांडे जैसे सशक्त व्यग्यकारों ने व्यंग्य पर अपने विचारों के साथ अपनी एक व्यंग्य रचना भी पढ़ी.

शुरुआत पियूष पांडे के व्यंग्य से हुई. उन्होंने पत्रकारिता पाठ्यक्रम में प्रवेश के इच्छुक छात्र के साक्षात्कार के बहाने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर हावी टीआरपी की बीमारी और अयोग्य पर चतुर को तरजीह देने पर तंज कसा,  जिसका मर्म था कि कैसे पत्रकारिता का एक इच्छुक छात्र बिना संविधान, सत्य के साथ मेरे प्रयोग, डिस्कवरी ऑफ इंडिया, यहां तक की गुनाहों का देवता के बारे में जाने बगैर भी इस क्षेत्र में आने और भूतों के इंटरव्यू से लेकर एंकर के नागिन डांस से खबरों को परोस कर टीआरपी विधा में पारंगत होने के दावे से अपनी योग्यता सिद्ध करता है. उन्होंने व्यंग्य साहित्य के प्रचार-प्रसार में नए माध्यमों के इस्तेमाल पर बल दिया. व्यंग्यकार सुनीता शानू ने अपनी रचना 'लेखक निर्माण चालू आहे' के बहाने भाषा से गायब होती सरलता और गहरे तक पैठ बनाती नाटकीयता की जमकर बखिया उधेड़ी. उनका कहना था कि आज वही साहित्य अच्छा माना जाता है, जिसे पाठक शुरू से अंत तक समझ न सके. आज के समीक्षक भी उसे ही महिमामंडित करने से नहीं चूकते. उनके शब्द थे, जो समझ आ जाए उसकी कोई कीमत नहीं, जो समझ न आए वह सौ करोड़ कमाए. अगले वक्ता के रूप में आर्थिक पत्रकारिता की पृष्ठभूमि के चलते समाज की हर घटना को बाजारवाद के नजरिये से परखने वाले व्यंग्यकार आलोक पुराणिक ने बहुत करारा व्यंग्य पढ़ा. उन्होंने बाजारवाद पर जोरदार कटाक्ष किया कि कैसे बाजारवाद में विचार, हकीकत, सच्चाई और आवश्यकताएं गड्डमड्ड हो गए हैं. उन्होंने अच्छे दिन आए या बुरे दिन के विचार को विज्ञापनों की दुनिया और सामानों की उपलब्धता से तौला. उनका कहना था कि सुबह से शाम तक 76 साल के अमिताभ बच्चन को बहुतेरे विज्ञापनों में देख लगता है, अच्छे दिन आ गए, पर अभिषेक बच्चन की बेरोजगारी देखते ही वह विचार काफूर हो जाता है. इसी तरह  2 अक्तूबर के प्रति महिलाओं की लालसा को गांधी की प्रासंगिकता समझ लेने से मिलने वाली खुशी तब गड़बड़ा जाती है, जब पता चलता है कि यह खादी सिल्क के उत्पादों पर मिलने वाली छूट के लिए है. वरिष्ठ सुभाष चंदर ने अपने व्यंग्य के जरिये राजनीति पर निशाना साधा. उन्होंने जन समस्याओं और गरीबी पर नेताओं की सोते रहने की प्रवृत्ति पर कटाक्ष किया कि कैसे सोया हुआ नेता लोगों के रोने से जब जगता है तो आश्वासनों के लॉलीपाप व वादों के खिलौने थमाकर उन्हें चुप रहने को तो कहता है ही, अंततः यह साबित भी कर देता है कि गरीबी उनका एक ऐसा अधिकार व पहचान है, जिसे छीनने की कोशिश से उनका वजूद ही मिट जाएगा, इसलिए उन्हें अपनी गरीबी बरकरार रखनी चाहिए. इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय ने दैनिक जागरण के इस पहल की सराहना करते हुए अपनी रचना सुनाई. उन्होंने कहा कि जब साहित्य के कार्यक्रम न के बराबर हो रहे हैं और साहित्य पत्रिकाएं भी लुप्त होती जा रही हैं, तब दैनिक जागरण का यह प्रयास प्रशंसनीय है. जागरण मीडिया साहित्यकारों और पाठकों से एक साथ संवाद स्थापित कर रहा है. कटाक्ष के अंदाज में उनका कहना था कि इस उम्र में अध्यक्षता के कीटाणु इस तरह घेर लेते हैं कि अध्यक्ष दूसरे की पूंजी पर व्याज सरीखा खाता है. उन्होंने अपनी 'हंसो, हंसो, और हंसो' जैसी सशक्त व्यंग्य रचना सुनाई और कहा कि हंसो कि हंसने वाला सदा समृद्ध रहता है. उन्होंने व्यंग्य को हास्य कहे जाने पर ऐतराज किया और कहा कि दोनों में बुनियादी अंतर यह है कि हास्य तो हास-परिहास कर सकता है, पर व्यंग्य हास-परिहास नहीं करता, इसलिए इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए.

कार्यक्रम का दूसरा सत्र कविता को समर्पित रहा. इस सत्र की अध्यक्षता चर्चित कवि लीलाधर मडलोई ने की. कार्यक्रम की शुरुआत युवा कवियत्री पूजा पुनेठा की कविताओं से हुई. उन्होंने 'बंजर जमीन का पौधा', 'गठरियां', 'आवारा हवाएं' और 'खामोश हवाएं' शीर्षक वाली कविताएं सुनाईं और दर्शकों की वाहवाही बटोरी. उनकी पहली कविता की पंक्तियां थीं,'मैं बंजर जमीन का पौधा हूं, मिट्टी- बारिश की दरकार नहीं, मुझे खुश्क हवाओं की तलब रहती है, मैं जकड़ता, पनपता हूं, मरता नहीं, मेरी खुराक तेज सूरज की तपिश होती है.' उनके बाद आए कवि निखिल आनंद गिरि ने अपनी 'हंसना', 'चांद सी प्रेमिका', 'दुख' और 'मां के साथ' शीर्षक वाली कविताएं सुनाई. उनकी कविताओं में सामाजिक विडंबनाएं, प्रकृति, मानव जीवन व मां से संबंधित भावनाओं की झलक के साथ आक्रोश भी शामिल था. उनकी एक कविता की पंक्ति थी, 'नशा ठीक नहीं हंसी का, जैसे पंडे हंसते हैं अभागी जातियों पर, जैसे दिल्ली में कोई हंस देता है बिहारी बोलकर, जैसे सरदारों पर हंसते हैं, कभी-कभी सरदार भी.' कवयित्री पूनम अरोड़ा ने बिना शीर्षक वाली कविताएं सुनाएं. उनकी कविताओं में देश के विभाजन के दौरान दादी द्वारा सुनाई गई रिफ्युजी जीवन का दर्द, आजादी की छटपटाहट, मैं तुम्हें दोष नहीं दूंगी के अलावा 'मुझे घर का हर रंग पता है..' जैसी पंक्ति सुनकर स्त्री हो या पुरुष, उसके दर्द का आभास हुआ. चर्चित कवि तेजेद्र सिंह लूथरा, जो अपनी बनारस पर लिखी लंबी कविता के चलते नामवर सिंह जैसे दिग्गज आलोचक से काफी प्रशंसा पा चुके हैं, ने अपनी 'धीरे-धीरे', 'जो नहीं मरा है', 'एक बूंद निश्चित' जैसी लघु और चर्चित लंबी कविता 'अस्सी घाट का बांसुरी वाला' सुनाकर दर्शकों से खूब वाहवाही बटोरी. उनकी कविताओं का शब्द-विन्यास देखिए, 'शब्द पकड़ा, अर्थ बीत गया…..', 'मेरे अंदर जो नहीं मरा है….', 'बिखर जाए सारा अमृत अब नहीं कोई भटकन….' और 'इसको कहीं से भी शुरू किया जा सकता है, बनारस के अस्सी घाट की प्राचीन, साइबेरिया से आए पक्षियों, अलमस्त फिरंगियों, टूटी सड़कों, बेजान वृक्षों, छोटी बड़ी नावों, कार का शीशा खटखटाते नंग-धड़ंग बच्चों, कहीं से शुरू कहीं से मंझदार में ले जाया जा सकता है.' इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे कवि लीलाधर मंडलोई ने दैनिक जागरण की तारीफ करते हुए कहा कि ऐसे दौर में जब संवाद में कमी आ रही है, तब जागरण की यह पहल अनूठी है. उन्होंने अपने ताजातरीन संग्रह 'जलावतन', जो विस्थापन की पीड़ाझेल रहे अपनी जमीन व नागरिकता खो चुके लोगों को आधार बनाकर लिखी गई है से कुछ कविताएं सुनाई. उनकी कविताओं में अमीर आदमी, मीडिया और राजनीति, मंदी, दोस्तों पर दो कविताएं, अंग्रेज, झाड़ू आदि जैसे विषय शामिल थे. उनकी एक कविता की पंक्ति थी, 'मैं मातृभूमि से दूर हूं, अपनी भाषा से नहीं, मैं अपनी वाणी में पुकारता हूं तुझे…' आखिर में साहित्य में डूबी यह सांझ अनौपचारिक भले ही थी, पर समय के अनुशासन में बंधी. तीन घंटे के इस अंतराल में 'दैनिक जागरण सान्निध्य' में जुटे साहित्य प्रेमियों के साथ फेसबुक लाइव पर 'हिंदी है हम' से जुड़े दर्शकों ने भी रचना पाठ व चर्चा का आनंद उठाया. याद रहे की इस साहित्यिक बैठकी का 'हिंदी हैं हम' फेसबुक पेज से लाइव प्रसारण भी हो रहा था. आखिर में दैनिक जागरण की ओर से ब्रांड विभाग के वरिष्ठ प्रबंधक तरुण गोस्वामी ने लेखकों, साहित्यकारों और श्रोताओं का आभार व्यक्त किया