डॉ. एस. एन. चौधरी

डॉ. एस. एन. चौधरी बरकतउल्ला विश्वविद्यालय में पिछले सत्रह साल से प्रोफेसर के तौर पर कार्य कर रहे हैं. पिछले एक दशक से ज्यादा समय से वो मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा स्थापित राजीव गाँधी समकालीन अध्ययन पीठ के प्रोफेसर हैं. पटना स्थित अनुग्रह नारायण समाज अध्ययन संस्थान, शिमला स्थित भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान तथा पेरिस स्थित एस. एम. एच. संस्थान के पूर्व अध्येता रहे हैं. डॉ. चौधरी ने ब्रिटिश कोलंबिया (कनाडा) के रेड इडियन्स पर शोध कार्य किया है. अभी तक डॉ. चौधरी की 38 पुस्तकें तथा 68 शोध आलेख राष्ट्रीय अंतराष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं. आपके द्वारा 25 शोध परियोजनाओं का सफलतापूर्वक संचालन किया गया है. इनके निर्देशन में 38 पीएचडी हो चुकी है. डॉ. चौधरी बरकतउल्ला विश्व विद्यालय की लगभग सभी अकादमिक एवं प्रशासनिक जिम्मेदारियां निभा चुके हैं. संप्रति प्रोफेसर चौधरी द्वारा जनजातियों की सांस्कृतिक धरोहर, शोध पद्धति, जनजातियों की स्थिति तथा जनजाति, जाति एवं विकास विषय पर शोध कार्य किया जा रहा है.

डॉ. एस. एन. चौधरी के साथ साक्षात्कार

दैनिक जागरण ज्ञानवृत्ति की चयन समिति के सदस्य प्रो एस एन चौधरी ने हिंदी में मौलिक शोध की कमी की वजहों को रेखांकित किया। साथ ही उन्होंने दैनिक जागरण ज्ञानवृत्ति में आवेदन करनेवाले शोधार्थियों को लेकर अपनी अपेक्षाएं भी बताईं। चूंकि वो समाज विज्ञानी हैं, इस वजह से उनकी दृष्टि इस विषय पर ही केंद्रित है। उनके बातचीत के प्रमुख अंश

ज्ञान के स्तर और सामाजिक बदलाव की नीतियों को परवर्धित करने का प्रयास हो- प्रो चौधरी

हिंदी में मौलिक शोध की कमी की वजह आप क्या मानते हैं?

प्रो चौधरी- अगर हम हिंदी में मौलिक शोध की कमी की वजह को तलाशते हैं तो हमें अंग्रेजों के शासन काल में जाना होगा। लॉर्ड मैकाले ने भारत से लौटकर ब्रिटिश संसद में भाषण दिया था कि हिन्दुस्तान में कोई भिखारी दिखाई नहीं देता है और वहां बहुत समृद्धि है। अगर ब्रिटेन चाहता है कि वो भारत पर लंबे समय तक राज करे तो वहां की भाषा को तोड़ना होगा, उसको कमतर दिखाना होगा और वहां के लोगों को बताना होगा कि आपकी भाषा पिछड़ेपन का प्रतीक है।  अंग्रेजी को बेहतर भाषा के तौर पर स्थापित करना होगा। मैकॉले की इस सोच का परिणाम हम सबके सामने है। भाषाई उपनिवेशवाद ने हिंदी का बहुत नुकसान किया।

यह ठीक है, लेकिन आजादी के इतने साल बाद भी शोध की भाषा के तौर पर हिंदी को स्थापित नहीं कर पाए?

प्रो चौधरी- देखिए, अंग्रेजों ने एक काम और किया कि उन्होंने शिक्षा को नौकरी से जोड़ दिया। इसका एक दुष्परिणाम ये हुआ कि छात्रों में वैश्विक दृष्टि कम होने लगी। वो ज्ञान को छोड़कर नौकरी के लिए पढ़ने लगे। अकादमिक क्षेत्र में भी हिंदी या भारतीय भाषाओं पर अंग्रेजी को तरजीह मिलती रही जो अबतक जारी है। राष्ट्रीय सेमिनार से लेकर अच्छी शोध पत्रिकाओँ का माध्यम अंग्रेजी का है। अंग्रेजी में लिखनेवालों को धन और सामाजिक प्रतिष्ठा तो मिली ही, उनको विद्वान भी माना जाने लगा। हिंदी में श्यामाचरण दुबे या योगेश पटेल जैसे विद्वानों ने सक्रिय जीवन के बाद ही लिखना शुरू किया।

अब इस स्थिति को बदलने के लिए क्या किया जाना चाहिए?

प्रो चौधरी- देखिए, मेरा मानना है कि आप बहुत स्थानीयता में ना जाएं लेकिन कम से भारतीय भाषाओं को, जो कि हमारे देश के एक बड़े भौगोलिक क्षेत्र में प्रयोग में लाई जाती है, उनमें शोध को बढ़ावा दिया जाए। इसका मतलब ये कि इन भाषाओं में शोध प्रस्ताव आमंत्रित किए जाने चाहिए, प्रोजेक्ट मंजूर किए जाने चाहिए। यह काम सिर्फ पहल से संभव है । इसके अलावा बड़े-बड़े राष्ट्रीय स्तर के सेमिनार आदि हिंदी में आयोजित किए जाने चाहिए। युवाओं को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए कि आप अपनी भाषा में बात करें, काम करें। दैनिक जागरण ने हिंदी को लेकर जिस तरह की पहल की है उसका स्वागत होना चाहिए और सबको मिलकर उसको मजबूत करना चाहिए।

सरकार से क्या अपेक्षाएं हो सकती है।

प्रो चौधरी- देखिए कानून बनाकर यह काम करवाना संभव नहीं है, लिहाजा इस मसले पर सरकार से बहुत अपेक्षा नहीं की जा सकती है। हां, सरकारें इतना अवश्य कर सकती हैं कि वो अपनी भाषा अकादमियों को दुरुस्त करे और उसको हिंदी में शोध करवाने के लिए रास्ता सुझाएं, ख्यातिप्राप्त लेखकों से हिंदी में लिखवाएं और ईमानदारी से रॉयल्टी दिलवाने की व्यवस्था करें। इसके अलावा सरकार इस काम में एक मदद ये कर सकती है कि तकनीकी संस्थान के शिक्षकों को अपनी भाषा में लिखने के लिए माहौल बनाए।

दैनिक जागरण ज्ञानवृत्ति की जूरी के आप सम्मानित सदस्य हैं। दैनिक जागरण ज्ञानवृत्ति में आवेदन करनेवाले शोधार्थियों से आपकी क्या अपेक्षा है।

प्रो चौधरी- मेरा मानना है कि विषय के चयन में शोधार्थीं को क्षेत्र विशेष और कालखंड का ध्यान रखना चाहिए। जैसे अगर महाराष्ट्र का आवेदक है तो जाहिर तौर पर उसको किसानों की समस्या पर नजर डालनी चाहिए। बिहार या उत्तर प्रदेश से है तो उनको जाति, अफराध और राजनीति आदि जैसे विषयों पर केंद्रित करना चाहिए। विषय के चुनाव के बाद उसको वैज्ञानिक तरीके से करने की कोशिश करनी चाहिए। शोधार्थी अकादमिक दृष्टि से मजबूत हों लेकिन साथ ही उनके शोध का उद्देश्य ये भी होना चाहिए कि ज्ञान के स्तर को भी आगे बढ़ा सकें। शोध का निष्कर्ष इस तरह का हो कि वो नीतियों को परवर्धित कर सके। जमीनी स्तर पर जो चेंज एजेंट काम कर रहे हैं उनको सही करने के उपाय भी सुझाने का उद्देश्य होना चाहिए।

डॉ. दरवेश गोपाल
डॉ. दरवेश गोपालप्रोफेसर, राजनीति विज्ञान - इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय
दैनिक जागरण संपादक मंडल
दैनिक जागरण संपादक मंडल
दैनिक जागरण ज्ञानवृत्ति